लाल डायरी

न जाने वो उस लाल डायरी में क्या लिखा करता है?
छुपते-छिपाते जमाने से वो फिरा करता है।
कैसा शौक है ये किसका ख़ौफ़ है ?
क्यूँ वो उन सफेद पन्नो पर , नीले रंग से शब्दों को जन्म देकर
लाल रंग में दफ़्न करता है।
न जाने वो उस लाल डायरी में वो क्या लिखा करता है?
वो डायरी एक जिस्म जान पड़ती है ,
जिसमे लिखे गए तमाम शब्द उसकी रूह है।
जो उन सफेद और खाली पन्नो पर कुछ यूं आर-पार है
जैसे लहू बहता है इंसानी रगो में,
फर्क सिर्फ इतना है इसका रंग नीला है और ये ज्यादा
पाक(पवित्र) है , शायद इसीलिए वो उनकी परछाई बन
के रहता है।
न जाने उस लाल डायरी में वो क्या लिखा करता है?
न जाने उस लाल डायरी में वो क्या लिखा करता है?
मयखानों में अकेले ही जाया करता है वो
अपनी लाल डायरी के साथ एक अंधेरे कोने में धुंए के छल्ले बनाया करता है वो,
चुप-चाप सबको देखता,चुप-चाप सबको सुनता
फिर अपनी डायरी में कुछ लिख कर शायद खुद से ही बात किया करता वो, क्या पता क्यूँ इस तरह वक़्त जाया करता है वो?
न जाने उस लाल डायरी में वो क्या लिखा करता है?
कभी लहरो के किनारे तो कभी चाय वाले के पास
कभी बस में खिड़की वाली सीट पर तो कभी बूढ़े भिखारी के पास, कभी भागती-दौड़ती भीड़ के बीच मे तो कभी सुनसान
रात की पीली रोशनी में गीली सड़क पे यूँ ही इधर से उधर हुआ करता है ,
न जाने उस लाल डायरी में वो क्या लिखा करता है?
कुछ लोग उसे मलंग कहते है
मुझे वो अलग लगता है,
वो होता है यहीं पर कहीं और वो रहता है।
यूँ तो सभी रंग पसंद है उसे , किसी से कोई गिला शिकवा नही ,
पर इंसान है ख़ुदा नही ये बात याद रहे इसीलिए वो लाल डायरी रखता है।
मैं उसी डायरी में मोड़ कर अलग से रखा हुआ एक खाली पन्ना हूँ जिसमे रूह का आना अभी बाकी है ,
उसकी कलम की नीली पाक स्याही लहू बन कर मुझ तक आना अभी बाकी है।
वो कई बार मुझे डायरी से निकाल कर , मेरी तय खोल कर
हाथ मे कलम लिए घंटो तक निहारा करता है । फिर यूँ ही कोरा वापस मोड़ कर रख दिया करता है।
मेरी सिलवटे उसे अनजान मालूम पड़ती है इसलिए शायद डरता है।
न जाने उस लाल डायरी में वो क्या लिखा करता है?

Author: Rishabh Mishra

अभी मैं उस अबोध बालक की तरह हूँ जो समुद्र के किनारे पड़े सीपो को इकठा कर रहा है जब की मोती तो समुद्र के तल में है।

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